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'देखती जननी मौन रही / गुलाब खंडेलवाल
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देखती जननी मौन रही
अंतर की पीड़ा नयनों से बनकर अश्रु बही
फिर फिर उठी हूक-सी मन में--
'कहाँ राम-सा पति त्रिभुवन में
फिर भी बेटी ने जीवन में
नित नव व्यथा सही
'वह क्यों इस वन में थी आयी
पिता-गेह आते सकुचायी
पति ने भी यह बात छिपायी
क्यों न मुझसे कही
'सुनकर व्यंग-वचन धोबी का
सिर पर दे कलंक का टिका
पल में त्याग करे पत्नी का
रघुकुल रीति यही!'
देखती जननी मौन रही
अंतर की पीड़ा नयनों से बनकर अश्रु बही