'न' कहने की सज़ा / ऋषभ देव शर्मा
- उन्होंने जोरों से घोषणा की :
अब से तुम आजाद हो,
अपनी मर्ज़ी की मालिक।
- मुझे लगा,
मैं अब अपने सारे निर्णय ख़ुद लूंगी,
इन देवताओं का बोझ कंधों पर न ढोना पड़ेगा।
-मैंने खुले आसमान में उड़ान भरी ही थी
कि फ़रिश्ते आ गए।
बोले-हमारे साथ चलो।
हम तुम्हें अमृत के पंख देंगे।
-मैंने इनकार कर दिया।
मेरा अकेले उड़ने का मन था।
-फ़रिश्ते आग-बबूला हो गए।
उनके अमृतवर्षी पंख ज्वालामुखी बन गए।
गंधक और तेजाब की बारिश में मैं झुलस गई।
-सर्पविष की पहली ही फुहार ने मेरी दृष्टि छीन ली
और मेरी त्वचा को वेधकर तेजाब की जलन
एक एक धमनी में समाती चली गई।
-मैं तड़प रही हूँ।
फ़रिश्ते जश्न मना रहे हैं - जीत का जश्न।
-जब जब वे मुझसे हारे हैं
उन्होंने यही तो किया है।
-जब जब मैंने अपनी राह ख़ुद चुनी ,
जब जब मैंने उन्हें 'ना' कहा,
तब तब या तो मुझे
आग के दरिया में कूदना पड़ा
या उन्होंने अपने अग्निदंश से
मुझे जीवित लाश बना दिया।
-जब जब मैंने अपनी राह ख़ुद चुनी,
जब जब मैंने उन्हें 'ना' कहा
तब तब या तो मुझे धरती में समाना पडा
या महाभारत रचाना पड़ा।
-मैंने कितने रावणों के नाभिकुंड सोखे
कितने दुर्योधनों के रक्त से केश सींचे
कितनी बार मैं महिषमर्दिनी से लेकर दस्युसुंदरी तक बनी
कितनी बार...
कितनी बार...
-पर उनका तेजाब आज भी अक्षय है
घृणा का कोश लिए फिरते हैं वे अपने प्राणों में;
और जब भी मेरे होठों से निकलती है एक 'ना'
तो वे सारी नफ़रत
सारा तेजाब
उलट देते हैं मेरे मुँह पर।
-मैं अब नरक में हूँ
अन्धकार और यातना के नरक में।
-अब मुझे नींद नहीं आती
आते हैं जागती आँखों डरावने सपने।
नहीं,
उड़ान के सपने नहीं,
आग के सपने
तेजाब के सपने
साँपों के सपने
यातनागृहों के सपने
वैतरणी के सपने।
-यमदूतो! मुझे नरक में तो जीने दो!!