'बेदाग़ आँचल' / जंगवीर सिंंह 'राकेश'
इतने करीब से कोई लम्हा गुज़र जाता है
कि गुज़र तो जाता है लेकिन
एक साया बन जाता है आँखों में !!
कोई इस बात पर ख़फा हो जाता है, मुझसे!
कि,
मैं रूहानी बातें लिखता हूँ।
अन्दरूनी बातें लिखता हूँ।
चटपटी, मसालेदार, अर्धनग्न
यौवन की कोई बात नहीं लिखता!
हां, मैं कभी नहीं लिख पाऊँगा !!
मेरा ज़मीर इसकी इज़ाज़त नहीं देता !!
वह उस रोज़ मर जाएगा,
जिस दिन उसने मुझे शोहरत
और पैसे की भूख का शिकार होते देखा !!
इसलिए,
मैं नहीं लिखता!
न ही लिखूंगा !!!
कल एक चौराहे के इक कोने में पसरी,
और मुफ़्लिसी की शिकार हुई इक माँ !
अपने वक्ष खोलकर वहीं
अपने बच्चे को दूध पिला रही थी!
आने जाने वाले ताक भी रहे थे!
किसी के मन में फुसफुसाहठ थी
तो किसी के होठों पर!!
वह भी अर्धनग्न ही थी!
उसके बदन पे महज़ इक फटी साड़ी ही रही होगी !!
लेकिन उसका ज़मीर, उसकी दौलत,
उसकी शोहरत उसके आँचल में थी !!
बिल्कुल बेदाग़ !!
हां! मैं ऐसा ही लिखता हूँ।
और, ऐसा ही लिखूंगा ।।।।