'मैं' का गीत / राजेन्द्र प्रसाद सिंह
मैं अरुण-नील अम्बर की सुधा अगर पी लूँ,
तो गरल हवा का, लापत धारा की कौन पिये?
जो नागिन डंसकर मुझे, तुम्हें, उन लोगों को,
बन गई रूप से चित्र और निवसी मन में,
वह और न कोई, सिर्फ आधुनिक छलना है,
वह ज्वालाओं की सेज बिछाती जीवन में!
वंचना प्यार के नाम बिकी फिरती फिर भी, आवेश काँच पर मणि का रंग सँजोता है;
मैं स्वयं मुक्त हो विष्णु-कौस्तुभ से खेलूँ
तो झुठलायेगा अपने हीरे कौन लिये?
जिन अंध तृषा की लपटें हैं पथ घेर रही,
वह कुण्डलिनी में सुप्त गरल की माया है,
जग उठी सभ्यता, के दंशन से आज वही,
इसलिए सत्य बन गया स्वप्न की छाया है,
हर ओर तृष्ण अनुकरण; अर्थ यह जीवन का, हर घडी असंयम, वर्तमान का यह प्रतिफल
मैं रहूँ अनागत के गह्वर में अतिचेतन;
तो निराकरण के लिए हविष हो कौन जिये?
सब के अपने-अपने नीलाभ गगन सीमित,
सबकी अभिलाषाओं के अपने रंग अरुण,
सबसे सुदूर वह सुधा, दूर ही स्नेह-क्षीर,
विष-घटा बरसती पास, भींगते होंठ करुण,
सब तो अपने में विवश, मोह घेरे का है, इसलिये नहीं संभव पीड़ा का भी एका;
मैं भी लूँ मुखड़ा ढांक घुटन की चादर से,
तो तार-तार आँचल जनता का कौन सिये?
तुम हो; तो अपने दृष्टिकोण की सीमा हो,
वे हैं; ....तो एक परिस्थिति में कट रहते हैं,
मैं भी हूँ, यह अभिमान नहीं, अपराध नहीं,
‘मैं’ तो प्रतीक सबका है, जो ‘मै’ कहते हैं,
सीमित मानव घेरे में सब स्वीकार रहा, जन के पथ से यह पतन तक लाता है,
मैं या मेरे जैसे ही सब गिरते जाएँ,;
तो सबको फिर सब कुछ जायेगा कौन दिये?
‘गीतांगिनी’(1958 में संकलित)