'मैं' तो सदा ही रहेगा / प्रवीण कुमार अंशुमान
मेरे परिचय में
देखो 'मेरा' आ गया,
फिर तो मैं वह नहीं
जो मैं कहने चला था;
मैं कुछ भी कहूँ,
'मैं' और 'मेरा' आ ही जाता है;
जब कहूँ कभी कि 'मैं बूँद हूँ'
या कहूँ कि 'मैं सागर हूँ' ,
देखो! फिर से इसमें भी 'मैं' आ गया;
या कहूँ गर कि 'मैं शून्य हूँ' ,
या कहूँ कि हैं 'शून्य ही मेरा अस्तित्व' ,
देखो! फिर से 'मैं' और 'मेरा' आ गया;
'मैं' से देख साथी,
लगता है कि मैं कभी बच पाऊँगा नहीं,
तब भी जब मैं सोचूँ कभी कि 'मैं निरहंकार हूँ'
या फिर बारीक़ी से बोलूँ
कि निराकार ही है, 'मेरा' आकार
फिर भी दोनों के दोनों 'मैं' और 'मेरा'
सदा हो जाते हैं फिर से उपस्थित,
हृदय मेरा शायद इसीलिए हो जाता है व्यथित;
और फिर मैं समझ गया कि
'मैं' से मैं कभी बच सकता नहीं,
मैं से छूटना कभी होता सम्भव नहीं;
'मैं' है और सदा ही रहेगा,
तब भी, जब मुझमें 'मैं' नहीं होगा,
या तब भी जब मैं नहीं रहूँगा,
या कुछ भी कहने का प्रयास करूँगा,
'मैं' से छूटना तो कभी भी साथी संभव नहीं
चाहे बुद्ध ही क्यूँ न बन जाए कोई यहाँ पर कभी।