भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

'मैं’ अभी मरा नहीं / पवन चौहान

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मलबे में दबी जिंदा औरत को
मारने के बाद
मैं अभी मरा नहीं
जेबों से भरे उसके गहनों ने
जिंदा रखा मुझे

वह मेरी कौम का नहीं था
भला मैं उसे क्यों बचाता
मैं क्या मूर्ख हूँ?
जो अपनी कौम के लिए
खड़ा कर देता एक और दुश्मन

वह अभी छोटा था
साल भर का
मरी माँ की छाती से चिपका
रोता, बिलखता
छोड़ आया माँ के पास ही
क्या करता वह जीकर अकेला

भूकंप के पहले झटके के साथ ही
दौड़ा था मैं सेठ को बचाने
तड़पते, चीखते बदहवास लोगों के बीच
ठीक ही तो है
यही तो समय था मेहनत का
फिर सारी उम्र का आराम

...माफ करना
अब मैं और ज्यादा बता नहीं सकता
आजकल थोड़ा व्यस्त हूँ
जल्दी में हूँ
सुना है अभी और लगने वाले हैं
भुकंप के कई झटके
इन्ही झटकों के बीच
जोड़ना है मुझे बहुत कुछ
भविश्य के लिए
मैं भाग रहा हूँ रात-दिन
लाशों को लाँघता हुआ
क्योंकि ‘मैं’ अभी मरा नहीं।