भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
'मॉड' वन / सोम ठाकुर
Kavita Kosh से
'मॉड' वन की इस पहाड़ी के ज़रा पीछे
हो गये बेहोश उत्सव
मर गए त्योहार
राख होती चाँदनी में
बिना सर के आदमी जुड़ने लगे
छोड़कर अपने तराशे पाँव धरती पर
नींद में चलते हुए कुछ लोग
भारहीन उछाल तक उड़ने लगे
घूमते सतिये छिटक कर
खो चले अपने शुभम आकर
लपलपाकर मुखौटे से जीभ अपनी
बुदबुदायी खोखली हर प्यास
टूटकर गिरती हुई चट्टान के नीचे
दब गया है छीक लेते हर्ष का इतिहास
झुकी कल के भोर की गर्दन
तन गये भाले, उठी नफ़रत -बुझी तलवार
'ग्राफ' रेखा आँकती सुईयाँ
बुन गयी कितने अनिश्चय - जाल
ध्वंस से आबद्ध नंगे तार पर चढ़ते हुए
हँस रहे है सृजन के कंकाल
'लाल बटनों' के हरे संकेत पर
लटके हुए हम
जी रहे -
खुद में जगे 'धिक्कार' का उच्चार .
हो गये बेहोश उत्सव
मर गये त्योहार