'सहजो' भजि हरि नाम कूं, तजो जगत सूं नेह / सहजोबाई
सहजोबाई का कविता काल लगभग सं। 1800 मानना चाहिये। ये दूसर कुल की रत्न-स्वरूपा थीं। इनमें संसार की अनित्यता के प्रति विराग-भाव या, इसका परिचय इन पंक्तियों से मिलता है:-
'सहजो' भजि हरि नाम कूं, तजो जागत सूं नेह।
अपना तो कोइ है नहीं, अपनी सगी न देह॥
जैसे संडली लोह की, छिन पानी छिन आग।
ऐसे दुख सुख जगत के 'सहजो' तू मन पाग॥
अचरज जीवन जगत में, मरिबों साँचो जान।
'सहजो' अवसर जात है, हरि सूंना पहिचान॥
झूठा नाता जगत का, झूठा है घर बास
यह तन झूठा देख कर, 'सहजो' भई उदास॥
कोई किसी के संग ना, रोग मरन दुख बंध।
इतने पर अपनौ कहैं, सत जो ये नर अंध॥
मर बिछुड़न यो होइगो, ज्यों तरुवा सूं पात।
सहजो काया प्रान यों, सुख सेती ज्यों बात॥
निर्गुण भगवान का गुणगान सहजो ने इस प्रकार किया है:-
नाम नहीं औ नाम सब, रूप नहीं सब रूप।
सहजो सब कछु ब्रह्म है, हरि परगट हरी रूप॥
भक्त हेत हरि आइया, पिरथी भार उतारि।
साधन की रच्छा करी, पापी डारे मारि॥
ताके रूप अनन्त हैं, जाके नाम अनेक।
ताके कौतुक बहुत हैं, 'सहजो' नाना भेष॥
है अखंड व्यापक सक्ल, सहज रहा भर पूर।
ज्ञानी पावै निकट हीं, मूरख जानै दूर॥
नया पुराना होय ना, घुन नहिं लागे जासु।
'सहजो' मारा न मरै, भय नहिं ब्यापै तासु॥
किरै घटै छीजै नहीं, ताहि न भिजवै नीर।
ना काहू के आसरे, ना काहु के सीर॥
रूप बरन वाके नहीं, 'सहजो' रंग न देह।
मीत इष्ट वाके नहीं, जाति पांति नहिं गेह॥
सहजो उपजै ना मरै, सद बासी नहिं होय।
रात दिवस तामें नहीं, सीत उस्न नहि सोय॥
आग जलाय सकै नहीं, सस्तर सकै न काटि।
धूप सुखाय सकै नहीं, पवन सकै नहिं आटि॥
मात पिता वाके नहीं, नहिं कुटुंब को साज।
'सहजो' वाहि न रंकता, ना काहू को राज॥
आदि अन्त ताके नहीं, मध्य नहीं तेहि माहिं।
वार पार नहिं 'सहजिया' लघू दीर्घ भी नाहिं॥
परलय में आवै नहीं, उत पति होय न फेर।
ब्रह्म अनादि 'सहजिया' घने हिराने हेर॥
जाके किरिया करम ना, पट दर्सन को भेस।
गुन औगुन ना 'सहजिया' , ऐसे पुरुष अलेस॥
रूप नाम गुन सूं रहित पाँच तत्त सूं हजूर॥
आपा खाये पाइये और जतन नहिं कोय।
नीर छीर निताय के 'सहजो' सुरति समोय॥