भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

'सौदा' से कहा मैंने, क्यों तुझसे न कहते थे / सौदा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

'सौदा' से कहा मैंने, क्यों तुझसे न कहते थे
लब इश्क़ के साग़र से ज़ालिम न कर आलूदा1

अब देख तो हाल अपना टुक2 रहम की नज़रों से
नाहक़ की बला में तू है किस क़दर आलूदा

आँखें तिरी रखती हैं दामानो-गरीबाँ3 को
ख़ूँनाब4 के क़तरों से से शामो-सहर5 आलूदा

जिस सिम्त6 निगह कीजे ऊधर नज़र आता है
लोहू से तिरे सर की दीवारो-दर आलूदा

जब मैं तुझे समझाकर रो-रो इन्हें धोता हूँ
कहता है न होवेगा बारे-दिगर7 आलूदा

लेकिन ये नसीहत है बेफ़ायदा, क्या हासिल
ये है कि उधर धोया, वो हैं उधर आलूदा

इस बात में ऐ नादाँ, बतला तो मज़ा क्या है
पाँवों से जो तू ख़ूँ में है ता-ब-सर8 आलूदा

जिस वक़्त ग़रज़ उनने ये बात सुनी मुझसे
इतना ही कहा भरकर आहे-असर-आलूदा9

लज़्ज़त को हलाहल की क्या उनको बताऊँ मैं
है कामो-दहन10 जिनका शहदो-शकर-आलूदा

शब्दार्थ
1. दूषित, 2. ज़रा, 3. दामन और गरबान, 4. रक्त, 5. सुबह-शाम, 6. तरफ़, 7. दूसरी बार, 8. सर तक, 9. असर रखने वाली आह, 10. होंठ और मुँह