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अँखिया में मन उतराई / मदन मोहन 'मनुज'
Kavita Kosh से
सोचि-सोचि बतिया मगन भइली अँखिया, एक रंग आवे, एक जाई।
कइसे केकरो सोझा नयन उघारीं, अँखिया में मन उतराई।।
मनवा में नेहिया के अगम लहरिया, जवना में सुधिया नहाइ।
सुधिया के देवता बसेले ओहि परवा, पॅवड़ि चललीं हरखाइ।।
पॅवड़त-पॅवड़त मधेधार गइलीं, जलवा के आर-न-पार।
लाज मोह डर लागे फेरु फिरि जइतीं, लवटत जियरा सँकाइ।।
हम डूबि जइतीं, परान छुट जइतें, तनिको ना मनवा में आहि।
जियरा जोगावल मूरति रहाइ जइहें, एहि सोचे जिउ मोरा जाइ।।
ढुरु-ढुरु-ढुरुकेले अँखिया से लोरवा, अँखिया रहत अन्हियार।
लेरवा के तोपला तनाइ गइली पपनी, भिंजि के बरवनी तारेतार।।
लाले-लाले डोरवा से कसि गइले नयना, उजबुज मन छितराइल।
कसहूँ किनारा केहू छोहगर लउकित, योरिका सहेजतीं सम्हारि।।