अँगूठा भर हैं नन्हे मिया / प्रदीप मिश्र


अँगूठा भर हैं नन्हे मियॉ

भय से थरथराती हुई आँखों में
कई रात गुजारने के बाद
बारूद में भुने हुए बच्चों के
हाथ-पाँव समेट रहे हैं
गुजरात के नन्हे मियॉ

पिछली चार पीढिय़ों से
पटाख़ों में रचे-बसे नन्हे मियॉ कहते हैं
बच्चे ख़ुदा की नियामत हैं
इनकी निग़ाहों से ही चुराकर
भरता हूँ पटाख़ों में रोशनी
जब बच्चे ही नहीं रहे तब
कहाँ से आएगी पटाख़ों में रोशनी
अब वे नहीं बनाएंगे पटाख़े

नन्हे मियॉ के पटाख़े न बनाने से
कहीं कुछ भी नहीं बिगड़ेगा
बाज़ार का पेट भर जाएगा
चीन और अमरीका के पटाख़ों से

कभी-कभार उनके घर के सामने से गुज़रते हुए
अचानक ठहर जाऐंगे किसी के कदम
और उसके कानों में गूँजेगी वही आवाज़
कल ही तो दिया था
आज फिर आ गया
फोकट की लत बहुत बुरी होती है
ले अब मत अइयो .......
हाँ सम्भाल के जलइयो
बहुत खतरनाक खेल है बारूद का

इस कविता में एक सुधार जरूरी है मित्रों
नन्हे मियॉ केवल गुजरात के नहीं हैं
वे मेरठ के भी थे
मुरादाबाद के भी और मुम्बई के भी
लाहौर और इस्लामाबाद में भी रहते हैं
नन्हे मियॉ
जो अब नहीं बनाएंगे पटाख़े

नन्हे मियॉ
न तो मुसलमान हैं न हिन्दू
सिर्फ अँगूठाभर हैं
जिस पर पुती हुई है स्याही।

इस पृष्ठ को बेहतर बनाने में मदद करें!

Keep track of this page and all changes to it.