अँगूर / अनूप सेठी
ऑटो पर बैठ जब बाजार से लौट चले
चौराहे पर बेटी के मुँह में डाले अँगूर के दो दाने
खरीदे थे उसी के लिए
उसकी आँखों में दिखी तृप्ति की चमक
तभी एक छाया सी आई ऑटो रिक्शा पर
एक बच्ची एक औरत की गोद में
सूखी भूखी आँखों वाली
कँपकपाया हाथ जिससे अँगूर डाले थे बेटी के मुँह में
रेस्क्यू के लिए दूसरे हाथ ने तत्काल दो का सिक्का उछाला
वक्त नहीं दिया भीतर छिड़े कोई बहस
आत्मा पितर परमात्मा सब तृप्त हो गए
दो के सिक्के ने सबके ढक्कन बँद कर दिए
कभी कभी दिख जाते हैं ऐसे दृश्य टीवी पर भी
लेकिन वहां शर्म पटखनी दे उससे पहले ही कई पक्ष आ जाते हैं ताल ठोंकते
पूरे समाजशास्त्र की सफाई और बेशर्म बेबसी का पर्दा हो तो
अकाल की डाकुमेंट्री के वक्त भी स्वाद लगती है मुर्गे की टांग
सपने तक नहीं आते बुरे बुरे
वज़न बढ़ता रहता है बाल बेशक झड़ जाते हैं विज़डम में चार चाँद लगाते हुए
इस चौराहे पर जो पकड़ा गया अलफ नँगा बेटी के साथ
दो का सिक्का जो सारी सँभावना आशंका पर जा चिपका था ढक्कन की तरह
डाट की तरह खुल गया अँतड़ियों को बाहर धीड़ता
किसे करँ याद राजनेता को बणिए सरमाएदार को
अर्थशास्त्री समाजशास्त्री को
वैज्ञानिक विचारक चिंतक दार्शनिक को
अध्यापक समाजसेवक या बाबुओं की जमात को
बुने जा रहे रेशम रेशमी लिबास
इधर मैं फँस गया सरे राह निपट अकेला
दयनीय नीच नंगा अलफ नँगा
झुलस रहा हूँ ठिठुर रहा हूँ
लाल बत्ती भी है हठीली
हरी होती ही नहीं।
(1995)