भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अँजुरी भर अँगड़ाई / अवनीश त्रिपाठी
Kavita Kosh से
सिरज रहा है धूप सलोनी
सिरहाने पर सूरज
भोर झरोखे पर ले आई
अँजुरी भर अँगड़ाई
दूर क्षितिज पर टहल रहे हैं
बादल के मृगछौने
श्याम-सलोने पर्वत जैसे
कुछ हैं बौने-बौने
मौसम के हरकारे बनकर
आये वंशी-मादल
धुनें,राग,लय,ताल समेटे
मदमाती पुरवाई
झाँक रहीं किरणें कनखी से
इच्छाएँ मधुवन की
काजल ओढ़े नयन पढ़ रहे
परिभाषाएं मन की
नई गुदगुदी उठकर कब से
पोर-पोर तक पहुँची
खिली मञ्जरी फुनगी चहकी
कली-कली इँगुराई
नेहनदी ने गीत सुनाये
कल-कल सम्बन्धों के
पृष्ठ खुले पुलिनों पर आकर
हस्तलिखित ग्रन्थों के
सतहों पर मौसम की बेटी
करती है अठखेली
झुके पेड़ सब नाप रहे हैं
पानी की गहराई