भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अँजुरी भर भर / सुदर्शन रत्नाकर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

महानगरों में लोग अब
मोटरों की पौं-पौं की आवाज़ से
नहीं उठते
उन्हें उठाते हैं
भोर बेला में
घरौंदों से निकल
आसमान में उड़ते पक्षी।
कौए की काँव-काँव
चिड़ियों का चहकना
कबूतरों की गुटरगूँ
और कोयल की कुहू-कुहू
मोरों की गूँजती है
मधुर आवाज।
मंद-मंद बहती
स्वच्छ हवा के झोंकों का स्पर्श
जब माथा चूमते हैं तो
सागर की लहरों-सी तरंगें
उठती हैं मन में तब
 कल-कल करती नदिया के संग
भागने लगता है यह मन।
बहने लगी हैं हवाएँ सर सर
प्रकृति का खेल है यह
लेती है कुछ तो
देती भी बहुत है
अँजुरी भर भर।
लगते हैं बहने।