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अँधेरा-उजाला-2 / लीलाधर जगूड़ी
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छोटे दीयों की तरह चाँद-तारों को निस्तेज करते हुए
सुनहरी हवा से उस काले कफ़न को उठा देता है सूर्य
अँधेरों की छायाएँ दिन भर के लिए जी उठती हैं
सब छायाएँ मिलकर फैला देती हैं
पहाड़ों और समुद्रों तक फैली एक विशाल रात
मेरी ही परछाई में दुबका हुआ है सृष्टि का सारा अँधेरा
अपनी अनुपस्थिति का नाम उजाला सुनने के लिए
न कोई कोशिश न कोई सफलता-असफलता
बस उजाले की कमी इतना बड़ा अँधेरा बना लेती है ख़ुद को।