अँधेरा / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'
यदि न होता यह अँधेरा-
देखता ही कौन विस्मय, हर्ष, रोम-प्रकम्प से-
यह ब्रह्म का आलोकमय मधुमास का स्वर्णिम सवेरा?
यह अँधेरा है सुचिक्करण स्निग्ध ढाका-सिल्क सा
जिस पर कि मेरी रूपवन्ती कामनाएँ काढ़ती हैं-
कल्पनाओं के कसीदे!
यह अँधेरा है चरागाहों सरीखा,
डोलतीं जिसमें परम स्वच्छन्दता से
मस्त मेरी कामनाओं की बकरियाँ और भेड़ें-
जो कि चरती हैं मनोहर
रूप की सुकुमार सुन्दर रेशमी-सी घास
जब तक भर न जाये पेट!
यह अँधेरा है बड़ा विश्रामदायक,
ग्रीष्म की विश्रान्त संध्या में भरे जल-हौज़ सा-
जिसमें कि मेरी दृष्टियों की चपल चारु किशोरियाँ
निर्बन्ध हो कर कूदती हैं, तैरती हें, और नीर उछालती हैं!
जल-सतह सा यह अँधेरा है बड़ा समतल;
इस अँधेरे में न होता भेद और प्रभेद,
पक्ष और विपक्ष अथवा ऊँच-नीच विचार!
सब तिमिर का आँज काजल देखने पर
सूझ पड़ता सूर्य-सा यह सत्य-
मृत्यु के चिर साम्यवादी हाथ ने
सारे उपेक्षित मरुथलों को,
सब घमण्डी पर्वतों को,
और रौंदे या कि कुचले दीन सारे सागरों को-
एक भट्ठी में जला कर,
राख से ऐसा बनाया मंच-
साथ सब बैठें कि जिस पर
रंक-राजा, स्त्री-पुरुष, वेश्या-सती, चर-अचर, डाकू-संत!
संसार का सारा निठुर वैषम्य-
राग और विराग के ग्रंथिल समस्त विरोध-
जय-पराजय के करुणतम क्लिष्ट खड्ग-निनाद-
हास-रोदन की करुण टकराहटों में से निकलती कौंध-
इस तिमिर के गुदगुदे सुकुमार गद्दे पर सभी आ सो गए हैं,
नींद में डूबे, बिना माँ के थके बच्चों-सरीखे
भूल अपनी पीर!
यह अँधेरा-आह, कितना सौम्य, कितना शान्त,
कितना मौन-
रे, हिमालय पर जमी सब बर्फ़ को पूरा जला कर
स्निग्ध-कोमल राख उसकी
इन दृगों के सामने फैला गया है कौन!
यह अँधेरा सर्वसत्तापूर्ण कितना शूर-
सत्य उसके स्वर्ण-रथ के चक्र के नीचे दबा
चिरकाल चकनाचूर!
सर्य-इसकी दाढ़ में तिल एक मानो श्वेत!
सृष्टि की सब दीपमालाएँ दुबकती भागती हैं
भय से कि जिसके
क्लान्त और अचेत!
हँसमुखी सा आह, वह लहरा रहा है इन क्षणों-
मेरे नयन के सामने-
ज्योंकि नीले व्योम नीचे सिन्धु फैला हो
शरद् की दोपहर में
तन गुदगुदाती
धूप में मृदु-मन्द!
यह अँधेरा है-कि जिससे
विश्व के सब प्राणियों की आँख-
मुफ़्त की सम्पत्ति जैसी-
नींद के भर-भर घड़े
हर रात ले जाती सुडौल
बड़े-बड़े!