भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अँधेरी खाइयों के बीच / कुँअर बेचैन
Kavita Kosh से
दुखों की स्याहियों के बीच
अपनी ज़िंदगी ऐसी
कि जैसे सोख़्ता हो।
जनम से मृत्यु तक की
यह सड़क लंबी
भरी है धूल से ही
यहाँ हर साँस की दुलहिन
बिंधी है शूल से ही
अँधेरी खाइयों के बीच
अपनी ज़िंदगी ऐसी
कि ज्यों ख़त लापता हो।
हमारा हर दिवस रोटी
जिसे भूखे क्षणों ने
खा लिया है
हमारी रात है थिगड़ी
जिसे बूढ़ी अमावस ने सिया है
घनी अमराइयों के बीच
अपनी ज़िंदगी,
जैसे कि पतझर की लता हो।
हमारी उम्र है स्वेटर
जिसे दुख की
सलाई ने बुना है
हमारा दर्द है धागा
जिसे हर प्रीतिबाला ने चुना है
कई शहनाइयों के बीच
अपनी ज़िंदगी
जैसे अभागिन की चिता हो।