भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अँधेरी रात की फ़ाक़ाकशी मिटाते हैं / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अँधेरी रात की फ़ाक़ाकशी मिटाते हैं।
दिलों में फ़स्ल उजाले की हम उगाते हैं।

लड़ाइये न इन्हें आँधियों से बेमतलब,
जला के दिल को दिये रोशनी लुटाते हैं।

उजाला साथ ही चलता है रात भर उनके,
जो बनके चाँद अँधेरे के पास जाते हैं।

अँधेरा काँपने लगता है रोशनी छूकर,
अँधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं।

प्रकाश कम है बहुत, लौ भी काँपती सी है,
चलो ख़याल की बाती जरा बढ़ाते हैं।