भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अँधेरे जब ज़रा सी रौशनी से भाग जाते हैं / ओमप्रकाश यती

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज



अँधेरे जब ज़रा-सी रौशनी से भाग जाते हैं
तो फिर क्यों लोग डरकर ज़िन्दगी से भाग जाते हैं

हमें मालूम है फिर भी नहीं हम खिलखिला पाते
बहुत से रोग तो केवल हँसी से भाग जाते हैं

निभाने हैं गृहस्थी के कठिन दायित्व हमको ही
मगर कुछ लोग इस रस्साकशी से भाग जाते हैं

यहाँ इक रोज़ हड्डी रीढ़ की हो जाएगी ग़ायब
चलो ऐसा करें इस नौकरी से भाग जाते हैं

लिखा था बालपन का सुख यशोदा-नन्द के हिस्से
तभी तो कृष्ण काली कोठरी से भाग जाते हैं