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अंकुर / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
फोड़ धरती की कड़ी चट्टान को
ऊर्धगामी शक्ति का व्यक्तित्व
अंकुर फूटता है !
आँधियों के दृढ़ प्रहारों से
सतत संघर्ष रत
नव चेतना का
दिव्य अंकुर फूटता है !
सिर उठा
फैला भुजाएँ
जब गगन में झूमता है वह
अमंगल नाश का विश्वास सारा
टूटता है !
सृष्टि की जीवन-विरोधी भावनाओं का
उमड़ता वेग
धीरज
छूटता है !
अंकुरों की राह से
हट कर चलो !
अंकुरों की बाँह से
हटकर चलो !
अंकुरों को फैलने दो
धूप में
विस्तृत खुले आकाश में !