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अंगिका मुकरियाँ-4 / सुधीर कुमार 'प्रोग्रामर'
Kavita Kosh से
बोर-बराती बहकै-चहकै,
पाँच डेग तक दारू महकै।
बाजै तॅ दलकै जनवासा,
की हिया संख? नै पिय तासा।
भरै उड़ान नया बछिया तब,
कनकन हवा बहै पछिया जब।
बारोॅ घूर बथान बुहारी,
की हिय भूसा? नै पिय अमारी।
रात अन्हरिया थर-थर कांपै,
डेग-डेग सें रस्ता नापै।
चिकरी बोलै जागें बहरा,
की हिय पागल? नै पिय पहरा।
देखी केॅ लागै अलबत्ता,
अखनी पटना झट कलकत्ता।
बटन दबाबोॅ कटथौन धोन,
की हिय वकील? नै पिया पफोन।
अंग-अंगिका खातिर धरना,
एकरा खातिर जीना-मरना।
होलै वहेॅ जे रहै लाजमी,
की हिय कुस्ती? नै ‘अकादमी’।