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अंगिका रामायण / पाँचवा सर्ग / भाग 3 / विजेता मुद्‍गलपुरी

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ठसुक <ref>अजमेर</ref> सरेड़ी <ref>भीलवाड़ा</ref> बुन्दी चन्देसरा <ref>उदयपुर</ref> जैगरण <ref>पाली</ref>
बनासनदी <ref>झाँसी</ref> के तट पर यज्ञ कैलका।
जयपुर केकड़ी <ref>अजमेर</ref> अेॅ खेरावाद <ref>कोटा</ref> भीलवाड़ा
त्रिवेणीनदी <ref>बून्दी</ref> के तट समाधि लगैलका।
भृभासनी <ref>नागैर</ref> चित्तौर अेॅ पुष्कर उदयपुर
अरावली शिखर पे यज्ञ करवैलका।
फेरो ऋषि शृंगी दक्षिणात्य देश आवी गेल
जहाँ शृंगी यज्ञ विष्णु यज्ञ कैलका॥21॥

पुत्र हेतु कही आवी यज्ञ करबावै ऋषि
कहीं आवी दृष्टि हेतु यज्ञ करवैलका।
कहीं विष्णु यज्ञ, कहीं रूद्र के रोॅ यज्ञ भेल
कहीं आवी शृंगी अश्वमेघ यज्ञ कैलका।
जगत में यज्ञ के अकेला एक होतला ऋषि
यज्ञ करि ब्रह्म के जे देह धरवैलका।
शस्त्र के प्रयोग बिना, शाप के सहारा बिना
शास्त्र के रोॅ ज्ञान जोत सगरो जलैलका॥22॥

जहाँ-जहाँ बैठै दस-पाँच-टा अवध वासी
आपस में सब मिली शृंगी कथा गाय छै।
सब नर-नारी वाँचै शृंगी के महातम के
घरे-घर अवध में मंगल मनाय छै।
जहिया से ऐला हरि कोख में कौशल्या जी के
आनन्द अवध के रोॅ कहल न जाय छै।
भाँति-भाँति रूप धरि पहुँचेॅ लगल देव
जेना-जेना जनम के तिथि नियराय छै॥23॥

ग्रह-जोग-लगन सकल अनुकूल भेल
चैत शुक्लपक्ष शुभ नौमी तिथि पैलका।
प्रकटल हरि शुभ दिवस के मध्य वेर
सब चर-अचर के चित हरसैलका।
ब्रह्मदेव देव संग चलल विमान लेॅ केॅ
अवध में आवी सब नयन जुरैलका।
असतुति करै सब देव-मुनि-नर-नाग
जय-जय-जय-जय सब मिली गैलका॥23॥

रोला -

प्रकटल दीन दयाल, सकल जग मंगलकारी।
अद्भुत अनुपम रूप, देखि हरसल महतारी॥1॥

प्रकटल जगत कृपालु, सकल दुख भव भय हारी।
प्रकटल व्यापक ब्रह्म, राम सब मुनि मन हारी॥2॥

रूप मेघ सन श्याम, सगुण अद्भुत छवि धारी।
शंख-चक्र-धनु-पदुम, चतरभुज शोभा न्यारी॥3॥

आभूषण वनमाल, मनोहर तन पर सोहै।
लोचन अति अभिराम, संत जन सहजें मोहै॥4॥

कहै शारदा-शेष, राम करूणा सुख सागर।
बरनै सहज स्वभाव, कहै हरि सब गुण आगर॥5॥

श्री हरि अगुण-अरूप, वेद जिनकर यश गावै।
अलख-अनादि-अनंत, संत जन पार न पावै॥6॥

जयति कृपा-सुख-सिन्धु, रमापति जय जग कारक।
जय करूणापति पंचतत्व रचि जग विस्तारक॥7॥

जिनकर माया पाय, सकल ब्रह्माण्ड रचावै।
धरती-जल-आकाश-वायु-पावक निरमावै॥8॥

जिनका निश दिन नेति-नेति कहि वेद बतावै।
नारद-शारद-शेष-ब्रह्म-शिव मरम न पावै॥9॥

देखि स्वरूप अनन्त, पुनः विहसल महतारी।
पुनि कहल कर जोरि, राम हे जग सुखकारी॥10॥

हम मति मंद, अथाह रूप गुण बरनि न पावौं।
व्यापक रूप अनंत, कवन विधि असतुति गावौं॥11॥

तजि केॅ व्यापक रूप, करोॅ अब शिशु के लीला।
जौनि भाँति सुत प्रेम रहेॅ, बोललि गुणशीला॥12॥

तब हरि बालक भेल, करेॅ रोदन तब लागल।
पसरल परमानन्द, ज्ञान तब हिय में जागल॥13॥

मनुज रूप अवतार धरी करूणापति ऐला।
सुर-नर-मुनि-गंधर्व, सभे के मन हरसैला॥14॥

शिशु रोदन सुनि दौड़ि परल सब-टा पुरवासी।
दशरथ के दरबार, खबर पहुँचैलक दासी॥15॥

पुत्र जनम अवधेश, सुनी आनन्द मनावै।
भेल मगन भूपाल, बहुत धनकोश लुटावै॥16॥

सुनि के जिनकर नाम, जगति के पीर हरै छै।
जिनका लेली जनम-जनम मुनि जतन करै छै॥17॥

जगत पिता बनि पूत, भूप के आँगन ऐलन।
आवि-आवि सब देव, देखि शिशु नयन जुरैलनै॥18॥

कैजों सोहर गीत, कहीं पर वजै वधैया।
सगरो मनै उछाह, लुटावै भूप रूपैया॥19॥

हरसल संत समाज, राम मानव तन थैलन।
आवि-आवि सब अवध जनम के धन्य वनैलन॥20॥

धरम सनातन सगर विसतारै लेली
भूमि-भार टारै लेली हरि अवतरलै।
संत के रोॅ त्राण लेली, भगत के मान लेली
युग-निरमान लेली हरि अवतरलै।
उन्नत चरित्र के प्रतीक समझावै लेली
दायित्व बुझावै लेली हरि अवतरलै।
कौशल्या के काज लेली, उन्नत समाज लेली
आरो रामराज लेली हरि अवतरलै॥25॥

सादर सम्मान से वशिष्ट जी बोलैलोॅ गेल
आवी कुलगुरू निज नयन जुरैलका।
शिशु के स्वरूप देखि धन्य भेला कुल गुरू
नन्दी मुख श्राद्ध तब बालक के कैलका।
तब कुलगुरू सब जात-संस्कार करि
बालक के हेतु सब मंगल करि
बालक के हेतु सब मंगल मनैलका।
महाराज दशरथ बहुत प्रसन्न भेल
भाँति-भाँति रतन-वसन दान कैलका॥26॥

अयोध्या नगर में जनम भेल राम जी के
जौने जहाँ सुनल से आनन मनानै छै।
चैत के महीना घरे-घर में आनन्द मनै
राम के जनम सुति देव हरसावै छै।
नगर में घरे-घर सगरो बधैया बाजै
घरे-घर सोहर समूह स्वर गावै छै।
दरसन हेतु सब देवगण आवी गेल
देववधु अंबर से फूल बरसावै छै॥27॥

नगर में ठाम-ठाम लागल तोरण द्वार
शोभा के स्वरूप कुछ कहलोॅ न जाय छै।
झुण्ड बान्हीं चलली नगर के रोॅ नर-नारी
जौने जहाँ सुनै ऊ सहजें उठि धाय छै।
कहीं पर सोहर त कहीं पे बधैया बाजै
कहीं पर चारण समूह बाँधी गाय छै।
जोखि-जोखि सोना चाँदि बनिक लुटावै, आरू-
धनिक रतन बिन जोखले लुटाल छै॥28॥

नगर में घरे-घर बाजल बधैया आजु
प्रकटल जहाँ शोभा-सिन्धु भगवान छै।
नगर में चारो दिश अबीर-गुलाल उड़ै
अवध के शोभा सुरपुर के समान छै।
महल के मणि जौने चमकै सितारा जकाँ
मंदिर के कलश जे चाँद के समान छै।
वेद ध्वनि लागै चहकैत खग के समूह
अवध विराजै सब सुख के रोॅ खान छै॥29॥

सोरठा -

करै पमरिया गान, नाचै आनन्दित करै।
पावै बहुनिधि दान, पूत्र जनम उपलक्ष में॥2॥

रोला -

प्रकटल महिधर शेष, स्वरूप सहस फन धारी।
गौर वर्ण सुख धाम, देखि हरसल महतारी॥21॥

पुनि धरलन शिशु रूप, तेॅ माता अंग लगैलन।
हरसल माता देखि, पूत अनुपम निधि पैलन॥22॥

शिशु मुख चन्द्र समान, चकोर सुमित्रा माता।
बहुत जतन पर गोद भरल, हे धन्य विधाता॥23॥

शंख-चक्र जे भक्ति-शक्ति हरि के कहलैला।
दोनो भेल संदेह, प्रकट जे भेॅ केॅ ऐला॥24॥

प्रकटल तब धरि देह, भगति आँगन में ऐलै।
शिशु स्वरूप लखि तब कैकयी के कोख जुरैलै॥25॥

तब प्रकटल रिपुदमन, धरम-धनु-सायक धारी।
अनुपम चारो लाल, देखि हरसल नर-नारी॥26॥

दशरथ के सुत चार, सुनी चारो दिश हरसल।
मंगल मनल उदाह, सुमन अंवर से बरसल॥27॥

हरसल जग के जीव, मगन नाचै अरू गावै।
तन के सुध बिसराय, परम आनन्द मनावै॥28॥

हरसल बहुरि वशिष्ट, राम अवतरल जानि केॅ।
सुनि हरसल ऋषि शृंगी, अपन जग सफल मानि केॅ॥29॥

वामदेव-जावालि आदि सब स्वस्ति उवाचै।
प्रकट भेल भगवान, मगन-मन सब जन नाचै॥30॥

सोरठा -

ऊँच-नीच के भेद, मिटल जुटल सब एक सँग
पहुंचल चारो वेद, तब मानव के रूप धरि॥3॥

जनम उछाह देखेॅ जुमल सुरूज देव
एक टक देखलका देखते रही गेलै।
अपन-अपन सब भाग के सराहै तब
आनन्द के एक हिलकोर जे बही गेलै।
एक माह सूरज अवध में ठहरि गेल
मास भर दिन एक रंग की रही गेलै।
बूझि न सकल कोनो राम जी के बाल लीला
ई रहस्य शिव पारवती से कही गेलै॥30॥

शब्दार्थ
<references/>