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अंगीठी और मैं / रामदरश मिश्र
Kavita Kosh से
इस भयानक ठंड में
अंगीठी के पास बैठा हूँ
दहकते कोयले की हँसी
उष्मा के फूल बन जा रही है मेरी त्वचा पर
मन गुनगुना रहा है
लगता है
मौन भाव से एक आत्मीय संवाद चल रहा है
मेरे और अंगीठी के बीच
एकाएक लगा कि अंगीठी कुछ कह रही है
शायद यह कि संवादियों के बीच थोड़ी दूरी बनी रहनी चाहिए
ताकि दोनों का अपना-अपा अस्तित्व बना रहे
देखो न
जैसे ही टूटेगी मेरे तुम्हारे बीच की दूरी
तुम मुझमय हो जाओगे
और मैं भी वह कहा रह पाऊँगी जो हूँ।
-6.1.2015