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अंग के आवाज / अभय सिंह

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ई खाली ऐ शब्द नांय
नांय शून्य में फुटलोॅ आवाज, जे उठै छै-मरै लेॅ
आतिशबाजी के फव्वारा रङ जलै छै, बाजै छै
जगमगाय लेॅ एक-दू पल आरू बैठी जाय छै
जमलोॅ अन्हार रङ ।
ई छिकै पहलोॅ शब्द, एक बेअन्त कविता के
जे गढ़लोॅ जाय छै सब दिन, अंग के जीवन-रस सें
अंगना केॅ बनावै लेॅ, धरती केॅ संवारै लेॅ
अंगलोक के जीवन में, अमृत के घड़ा भरै लेॅ ।
अंगिका !
एक ध्वनि ! करोड़ो प्रतिध्वनि !!
जमालपुर पहाड़ोॅ केरोॅ छहारी में, आकि ई बढ़का भूखण्ड में
जेकरा छूवै छै नेपाल के तराई नें
आकि हँसावै-कनावै छै, कोशी आरो महानन्दा
आरू ढाड़स दै छै गंगा, सिमरिया घाट सें राजमहल तांय
जमा करी केॅ सब नदी के पानी
समुद्र तक जाय केॅ, सब्भै के साथ, अथाह बनी केॅ-
जहाँ नांय होय छै बड़ोॅ-छोटोॅ, नांय होय छै छोटोॅ-बड़ोॅ ।
मजरकि होलै गुमनाम
काल के चक्कर में
मिथ्या के प्रचार सें दबलोॅ
जबेॅ गुमनामी के दुख सुनलकै राहुल (सांकृत्यायन) नें
आरू देलकै नाम, कहलकै नया सच-
नांय केरोॅ इन्तजार कोय अंगराज के
नांय होतै फेरू अंगराज
जे छै, ऊ छिकै-अंग, अंगवासी आरू अंगिका
सब शहर आरू कसबा-एकरोॅ राजधानी
सब गाँव एकरोॅ साँस, सब जीव एकरोॅ कहानी

सब पात्रा-लपका उपन्यास ।
अंगिका ! छिकै एक विशाल भाव
जे नांय छै आबेॅ गुमनाम, पकड़ी केॅ कूप अन्हार केॅ ।
छै सुधांशु रङ साफ, शान्त आरू गतिमान
दिनकर के ताप सें दूर, हेकरोॅ रौशनी सें नहैलोॅ
रेणु के साथ जगमग, अंग के ई आपनोॅ ब्रह्मांड
जिन्दा छै बिना सत्ता-संबल के
आरू टिमटिमाय छै हजारो तारा के साथ
बिहुला आरू मंजूषा रङ, अंगजन के मेरुदण्ड पर
जे कहियो देनें छेलै
लपका सोच आरू भाव, विक्रमशिला के ऐंगन सें ।
हिमालय के पार तिब्बत लेॅ, आरू हतास देवोॅ सिनी केॅ
अमृत भरलोॅ घड़ा मन्दार सें ।
ई अंग के आवाज
करोड़ो लाख जन के भाषा
आरू सब्भै केॅ छै भान, कि सब जनµहेकरोॅ रेणु
सब जन-धरतीपुत्रा
यहा हेकरोॅ परमानन्द