अंग से मेरे लगा तू अंग ऐसे, आज तू ही बोल मेरे भी गले से / हरिवंशराय बच्चन
अंग से मेरे लगा तू अंग ऐसे, आज तू ही बोल मेरे भी गले से।
पाप हो या पुण्य हो, मैंने किया है
आज तक कुछ भी नहींआधे हृदय से,
औ' न आधी हार से मानी पराजय
औ' न की तसकीन ही आधी विजय से;
आज मैं संपूर्ण अपने को उठाकर
अवतरित ध्वनि-शब्द में करने चला हूँ,
अंग से मेरे लगा तू अंग ऐसे, आज तू ही बोल मेरे भी गले से।
और है क्या खास मुझमें जो कि अपने
आपको साकार करना चाहता हूँ,
ख़ास यह है, सब तरह की ख़ासियत से
आज मैं इन्कार करना चाहता हूँ;
हूँ न सोना, हूँ न चाँदी, हूँ न मूँगा,
हूँ न माणिक, हूँ न मोती, हूँ न हीरा,
किंतु मैं आह्वान करने जा रहा हूँ देवता का एक मिट्टी के डले से।
अंग से मेरे लगा तू अंग ऐसे, आज तू ही बोल मेरे भी गले से।
और मेरे देवता भी वे नहीं हैं
जो कि ऊँचे स्वर्ग में हैं वास करते,
और जो अपने महत्ता छोड़,
सत्ता में किसी का भी नहीं विश्वास करते;
देवता मेरे वही हैं जो कि जीवन
में पड़े संघर्ष करते, गीत गाते,
मुसकराते और जो छाती बढ़ाते एक होने के लिए हर दिलजले से।
अंग से मेरे लगा तू अंग ऐसे, आज तू ही बोल मेरे भी गले से।
छप चुके मेरी किताबें पूरबी औ'
पच्छिमी-दोनों तरह के अक्षरों में,
औ' सुने भी जा चुके हैं भाव मेरे
देश औ' परदेश-दोनों के स्वरों में,
पर खुशी से नाचने का पाँव मेरे
उस समय तक हैं नहीं तैयार जबतक,
गीत अपना मैं नहीं सुनता किसी गंगोजमन के तीर फिरते बावलों से।
अंग से मेरे लगा तू अंग ऐसे, आज तू ही बोल मेरे भी गले से।