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अंग -प्रत्यंग को हिला डाला / जहीर कुरैशी
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अंग प्रत्यंग को हिला डाला
यात्रा ने बहुत थका डाला
बर्फ-से आदमी को भी आखिर
व्यंग्य-वाणों ने तिलमिला डाला
काल ने सागरों को पी डाला
काल ने पर्वतों को खा डाला
फिर वो क्यों रोज याद आती है
मैंने जिस शक्ल को भुला डाला
एक तीली दिया जलाती है
एक तीली ने घर जला डाला
स्वप्न में भी न कल्पना की थी
वक्त ने वो भी दिन दिखा डाला
अंतता: आँख डबडबा आई
उसने इतना अधिक हँसा डाला