अंजाम से वाकिफ़ है मगर झूम रहा है / राजेंद्र नाथ 'रहबर'
अंजाम से वाक़िफ़ है मगर झूम रहा है
वो फूल कि जो शाखे़-तमन्ना पे खिला है
तारीख़ के सफ्ह़ों ने जो देखा न सुना है
वो बाब मेरे अह्द के इंसां ने लिखा है
सुनने को जिसे गोश-बर-आवाज़ है दुन्या
वो गीत अभी साज़ के पर्दों में छुपा है
इक उम्र गुज़ारी है सुलगते हुये मैं ने
मैं ऐसा दिया हूं जो जला है न बुझा है
फ़ुट-पाथ का बिस्तर है तो है ईंट का तकिया
ये नींद के यूं कौन मज़े लूट रहा है
ठहरे हुये पानी की तहें चौंक पड़ी हैं
कँकर कोई यादों के सरोवर में गिरा है
आईनए-दिल में तू कभी देख उसे भी
इक और भी चेहरा तेरे चेहरे में छुपा है
इस राह से गुज़रो तो कभी तुम को सुनाऊं
इक गीत तुम्हारे लिये अश्कों से लिखा है
करता है इसे संग पे तह्रीर अबस तू
ऐ दोस्त तिरा नाम तो पानी पे लिखा है