अंतः वेदना / लता सिन्हा ‘ज्योतिर्मय’
दीवार गिरा मन-मंदिर की
कैसे तपकर रह लेते हो...?
यूं विरह वेदना घुट-घुटकर
क्यूँ चुपके से पी लेते हो...?
संवेदनहीन या चक्षुदोष
या पुरुष अहम की वेदी है
यदि अश्रु-बूंद न हवन किए
स्व-आहुति ले लेती है...!
क्या विह्वल तेरे भाव नहीं
होते, या पहरा पाते हैं...?
आजीवन कारावास लिए
क्या पत्थर फूल खिलाते हैं...?
दीप्त ताप में तपकर भी
पाषाण चटकते देखा है
क्यूँ हार मांस के पुतले ने
चटकाई भाग्य की रेखा है...?
पुरुष कफन में लिपटा नित
क्यूँ अपनी चिता सजाता है?
मन चंदन भरी पचाठी पर
स्वयं मुखाग्नि दे जाता है।
माना कि शापित है जीवन
पर मन-मंदिर न ढहने दे
जो बंद लौह के द्वार हृदय
दे खोल, अश्रु को बहने दे...
कोई नर-नारी में भेद नहीं
मन कोमल ही तो पाया है
किस भाव हृदय दीवार घिरा
कर धराशाई, सब माया है।
बहुमूल्य मिला है एक जीवन
कल, कब और किसने देखा है?
अनभिज्ञ शांत ज्योतिर्मय है
शिव-स्नेह ही जीवन रेखा है...