अंतडि़यों में ब्रह्मांड / कुमार मुकुल
नाव पर
अपने जूते छोड
भागता हूं
भागता जाता हूं
तेजी से रेत पर
वो सामने रहा
काशी का पुल
वो दूर छूट गया मल्लाह
अब नजदीक आ रहा है
मोगलसराय का जंगल
ओह कितनी थकाती है रेत
थकान कितना काटती है ऊब को
फिर भागता हूं रेत पर हिरण की तरह
जैसे बादलों पर भागता है चांद
पैर धसकते हैं बार बार
बार बार साधता हूं संतुलन
अंतत: थककर गिर जाता हूं
पृथ्वी पर
पीठ के बल बेदम
ताकता हूं आकाश
तारे हैं वहां चिनचिनाते
आंखें घुमाता हूं चारों तरफ
नहीं दिख् रही पृथ्वी कहीं भी
सगुन आकश है बस सब ओर
शायद
क्षितिज की संधि पर हूं मैं
पीठ के नीचे
फैली है निर्गुन रेत
पृथ्वी का प्रतिनिधि में
उठ बैठता हूं
कोडता हूं रेत
नीचे निकल आता है जल
कुनकुना
चुल्लू में भरता हूं जल
उसमें तिरते हैं तारे
तोरों की पी जाता हूं मैं
ओह
ब्रह्मांड फैल रहा है
मेरी अंतडियों में।
1994