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अंततः / मनोज शर्मा

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मवेशी रंभा रहे हैं
शोर डाल रही हैं चिड़ियाँ
दीपकों में तेल डालने का समय हो चुका है
और कितना चुप रहूँ
कितना कितना दुबका रहूँ

खड़ी गाड़ियाँ ताक
सूज गयी हैं ट्रक ड्राइवरों की आँखें
मिस्त्री, गिड़गिड़ाते, आधे पर भी काम मांग रहे हैं
रेहड़ी बाज़ार को सूंघ गया है सांप
घर में राशन तो क्या
दूध की बूंद तक नहीं
राग गाऊँ
या अंतर्मन में लीन हो जाऊँ

कुल तीन समाचार हैं
टीकाकरण, पाँच जी और परिसीमन
जुटा है आई टी सैल
जुटा है सोशल मीडिया
न्यूज़ एंकर जुटे हैं
जुटे हैं समाचार पत्रों के संपादकीय
और शेष, लेशमात्र है

सूरज, पूरे ताव में है
और कितना सहूँ
और क्या कहूँ
अजीब विडम्बना है
लिखता हूँ जो:
'मेरा देश महान'
तो स्याही धुंधलाने लगती है

महोदय!
ये मेरे निजी भाव हैं
पर यह तो बताएँ
निजीकरण क्या है बला
जितने अर्थशास्त्रियों के पास जाता हूँ
माथा पीटते पाता हूँ
और इधर चौरस्तों पर
कई नए चेहरे
भीख मांग रहे हैं!