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अंतरंग / पुष्पिता
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नदी की लहर
हवाओं में साँस की कोशिश 
मछलियों की तरह 
नदी तट की देह-माटी में है 
गर्भिणी-प्रसवा स्त्री की देह में जैसे
मातृत्व लहरियों के चिन्ह 
नदी 
पहनती है जल-वसन 
हवाएँ 
खेलती हैं नदी के जल-वस्त्र से 
सागर 
प्रिय की तरह समेटता है 
नदी का जल-वसन 
निर्वसना नदी की 
देह-माटी में मिली होती है 
सागर की प्रणय-माटी 
जिस पर उकेरी हुई 
प्रकृति की प्राकृत भाषा 
लिखती हैं हवाएँ 
प्रकृति में ऋतुएँ के नाम से 
और साँसों में प्रणय के नाम से 
हवाएँ 
बीज में रोपती हैं प्रेम 
धड़कनों में गुनती हैं स्वदेश-स्मृति 
सूरीनामी वन
नहाता है बरखा के आलिंगन में 
पर्वत भोगते हैं 
वर्षा के भुजपाश का सुख 
घन की सघन परछाईं 
पृथ्वी को बचाती है सूर्य-ताप से 
तुम्हारी ही तरह।
 
	
	

