अंतर्द्वंद / रचना उनियाल
नव जीवन में आशा का नभ, नारी मन में डोले।
मणिमय आभा पावस अंतस, उत्कंठित हो बोले।
आलय के अंतह में रज कर,
बंधन प्रीति निभाती।
अधाधुंध जीवन की गति फिर,
तन-मन शिथिल बनाती।
बनें सहायक वचनों को वह, नयनों में ही तोले।
मणिमय आभा पावस अंतस, उत्कंठित हो बोले।
विहगों की आशा में रमकर,
जीवन जीती जाती।
आस भरे हृदयों में रहकर,
पंख कतर कब पाती।
कर्म धर्म का मर्म जगाती, सत्य प्रेम वह खोले।
मणिमय आभा पावस अंतस, उत्कंठित हो बोले।
हिय के बोझिल भावों को जब,
सभी दिशाएँ बाँधे।
विचलित होता जिस क्षण मानस,
परम डोर वह साधे।
मन निष्क्रिय संघर्ष व्यथा में, जी घर्षण झकझोले।
मणिमय आभा पावस अंतस, उत्कंठित हो बोले।
पीड़ा के वारिधि में डूबे,
जीव सृजन कर धात्री।
मन है उसका अम्बुज जैसा,
शिथिल बने कब यात्री।
पद्म दलों पर नेह मुकुल को, धीमें-धीमें खोले।
मणिमय आभा पावस अंतस, उत्कंठित हो बोले।