अंतर्मन का द्वार खोलकर / शिव मोहन सिंह
अंतर्मन का द्वार खोलकर
संग लहर के आ जाना ।
अंतस् की पीड़ा पिघलेगी
तुम तो केवल मुस्काना ॥
जब-जब बंद हुआ वातायन ,
मन में धुआँ-धुआँ भरता है,
जाने क्या-क्या जल जाता है,
अपना दूर हुआ लगता है ।
तुमसे मिलकर सूर्य बुनेगा
किरणों का ताना -बाना ।
अंतस् की पीड़ा पिघलेगी
तुम तो केवल मुस्काना ॥
अंदर-अंदर आग लगी तो
अरमानों के पंख जलेंगे ।
भाव-भूमि से दूर गगन में
फिर कैसे परवाज भरेंगे !
डाल-डाल पर रास रचाकर
किसलय-किसलय भा जाना ।
अंतस् की पीड़ा पिघलेगी
तुम तो केवल मुस्काना ॥
लहर लहर में रस के गाहर,
कदमों में आकर छलकेंगे।
नभ के सारे चाँद सितारे
नयनों में आकर झलकेंगे।
जितना चाहो स्वप्न सजाना,
जितना चाहो शरमाना ।
अंतस् की पीड़ा पिघलेगी,
तुम तो केवल मुस्काना ॥
तुम से मिलकर एक हवा का
झोंका वापस भी जाएगा ।
अमराई की रुत बदलेगी,
पात-पात मन लहराएगा ।
कोयल कूक सुना जाएगी,
तुम तो केवल इतराना ।
अंतस् की पीड़ा पिघलेगी,
तुम तो केवल मुस्काना ॥
गिरना उठना गति को जीना ,
निर्झर का जीवन बन जाना ।
धड़कन धड़कन आहट बनकर ,
साँसों का सरगम बन जाना ।
एक नया परिवेश बनाकर
फिर से आस जगा जाना ।
अंतस् की पीड़ा पिघलेगी
तुम तो केवल मुस्काना ॥