अंतर्मन / शशि पुरवार
अंतर्मन एक ऐसा बंद घर
जिसके अन्दर रहती है
संघर्ष करती हुई जिजीविषा,
कुछ ना कर पाने की कसक
घुटन भरी साँसे
कसमसाते विचार और
खुद से झुझते हुए सवाल
झरोखे की झिरी से आती हुई
प्रफुल्लित रौशनी में नहाकर
आतंरिक पीड़ा तोड़ देना चाहती है
इन दबी हुई सिसकती
बेड़ियों के बंधन को।
सुलगती हुई तड़प
लावा बनकर फूटना चाहती है
बदलना चाहती है, उस
बंजर पीड़ा की धरती को,
जहाँ सिर्फ खारे पानी की
सूखती नदी है
वहाँ हर बार वह रोप देती है
आशा के कुछ बिरबे,
सिर्फ इसी आस में
कि कभी तो बंद दरवाजे के भीतर
ठंडी हवा का, ऐसा झोखा आएगा
जो साँसों में ताजगी भरकर
तड़प को खुले
आसमान में छोड़ आएगा
और अंतर्मन के घर में होंगी
झूमती मुस्कुराती हुई खुशियाँ
नए शब्दों की महकती व्यंजना
नए विचारो का आगमन
एवं कलुषित विकारो का प्रस्थान।
एक नए अंतर्मन की स्थापना
यही तो है अंतर्मन की विडम्बना।