भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अंतर्यात्रा / दिनेश कुमार शुक्ल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बैठा हूँ प्रतीक्षा में
खुलते ही नहीं हैं कपाट
बीत गये चालीस साल

जीवित और मृत
चेतन-अचेतन
प्रतीक्षाओं की भीड़ में
बैठा हूँ
तिलिस्म के द्वार पर

धरती ने ओढ़ रखी है
दुःखों की चादर
जिस पर जड़े हैं
छोटी-छोटी खुशियों के
सलमा सितारे
मैं धरती का
चेहरा देखना चाहता हूँ
पिछले चालीस सालों से

भाग्यशाली हूँ कि पिये हैं मैंने
धरती के पीन पयोधर
सुनहरे सुगन्धित रसाल
जन्म से ही देखे हैं मैंने
पालने के ऊपर छत की
धन्नियों में रेंगते पृथ्वी को धारण करने वाले कराल व्याल,
पोर-पोर में
अषाढ़ में भीगती धरती की
सोंधी स्मृति,
इतनी निकटता मिली है
मुझे धरती की
कि मैं तुमसे क्या कहूँ !

किन्तु किस गुहा गह्वर में
बंद है
सुख-दुख का मर्म --
भनक भी मुझे नहीं लगने दी
माता ने
वैसे ही शैशव में
गुजर गये चालीस साल

यूं कभी-कभी
झाँकी दिखाई है तिलिस्म की
मुझको भी धरती ने
छोटे से बीज के अन्तस् में
किया है मैंने प्रवेश
जहाँ ब्रम्हाण्ड खिलखिलाता है,
झूलते हैं जहाँ
क्षितिज से क्षितिज तक
जीवन और सृष्टि की
लड़ी के हीरक हार,
मैंने भी अनुभव किया है
अंकुरण का रोमांच

यूं तो तृप्ति के लिये
काफी है घास के एक तिनके
की सन्निधि,
सिर्फ एक वृक्ष काफी है
जिन्दगी भर की जिज्ञासा के लिये

जब फैलती है एक डाल
तो फैलती है आकाश गंगा सी विस्तृत,

एक पत्ती पर
फैले नसों के जाल संजाल में
अंकित है कूटाक्षरों में
सृष्टि का सारा रहस्य

हर पत्ती अलग-अलग
तरीके से डोलती है
अलग-अलग वक्तों में
और
जड़ों से ऊपर चढ़ता हुआ
जीवन रस
बिल्कुल एक नई
और अभूतपूर्व बूँद
रचता है प्रतिपल

मैं डूबना चाहता हूँ
टमाटर के अन्तरंग
रक्तिम आलोक में
मैं तैरना चाहता हूँ
सरसों की अनन्त पीताभा में
और
उड़ना चाहता हूँ ओर छोर
तुम्हारी देहगंध के उद्दाम आकाश में

मैं उतरना चाहता हूँ
उस समुद्र में
जहाँ से उठते हैं
तुम्हारी आँखों में उमड़ते
उदासी के बादल,
मैं जाना चाहूँगा
उस कुंभीपाक तक जहाँ
पनपते हैं हत्या के कीटाणु,
मैं प्रवेश माँगत हूँ
बबूल के कांटों
और सर्प के विषदन्त की जड़ में

इसलिये जरूरी है
कि खुलें ये कपाट
और मैं प्रवेश कर सकूँ
चीजों के अन्तर्जगत में
ताकि समूल ही उखाड़ सकूँ
दुख की विषबेल
और भर दूं संसार को
रसीले फलों
और खुशियों की बाढ़ से।