अंतर्वेदना / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
किसलिए आई हो तुम आज,
चित व्यथित हुआ तुम्हें अवलोक;
हो गये पूर्व विभव की याद,
भर गया अंतस्तल में शोक।
जहाँ बहता था रस का सोत,
वहाँ है बरस रहा अंगार;
बन गया परम भयंकर व्याल
गले का कलित कुसुम का हार।
वहाँ अब छाया है तम तोम,
जहाँ था लसित ललित आलोक;
सकल आलय है भरित विषाद,
कलह-कोलाहलमय है लोक।
दिखाता नहीं शांति-मुख मंजु,
विकलता छाई है सब ओर;
सुखों पर होता है पवि-पात,
घहरता है आपद-घन घोर।
दश दिशा में जय-केतु-समान
रहे फैले जिसके दस हाथ;
सहचरी जिसकी थी सब काल
'इंदिरा' हंसवाहना साथ।
बसे जिसके ढिग मंगल-मूर्ति
देव-सेनापति-सहित सदैव;
भूति वह हुई प्रभाव-विहीन,
हो गया परम प्रबल दुर्दैव।
हमारी सिंहवाहिनी शक्ति
आज सोई है पाँव पसार;
सुनाता है नभ-तल को वेधा
विपुल-आकुल-जन-हाहाकार।
किसलिए लें न कलेजा थाम,
तुम्हें क्या दें विजये, उपहार;
हो गये हैं छाती में छेद,
नयन से बहती है जल-धार।