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अंतहीन दौड़ (कविता) / अमरजीत कौंके
Kavita Kosh से
मैं रेस का घोड़ा हूँ
मुझ पर हर किसी ने
अपना-अपना दाँव लगाया है
किसी ने ममता
किसी ने फ़र्ज़
संस्कार, परम्पराएँ
कहीं मोहब्बत, मोह, भय
किस-किस तरह का वास्ता पाया है
अनगिनत सदियों से
दौड़ रहा हूँ मैं
अंतहीन दौड़,
दौड़ता दौड़ता कभी गिरता हूँ
उठता हूँ
फिर दौड़ने लगता हूँ
अंतहीन दौड़
मेरी कोई जीत मेरी नहीं
मेरी कोई हार मेरी नहीं
मेरा कुछ भी मेरा नहीं
मोह, मोहब्बत, ममता, फर्ज़,
रिश्तों का कर्ज़
उतारने के लिये
मैं लगातार दौड़ रहा हूँ
अंतहीन दौड़
मैं लगातार दौड़ रहा हूँ
और
पीछे छूटती जा रही हैं
कविताएँ ।
मूल पंजाबी से हिंदी में रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा