युद्ध कि वह एक भयानक रात थी।
निःशब्द रात।
बज उठता था सायरन
भयभीत कर जाता था
हर पल।
कहीं दूर बज उठती थीं
गोलियों की गूंज, धुआं,
टैंकर की घरघराहट
सुबह! निर्दोष
लाशों को ढोते
ग्रामवासी।
फिर वही रात,
फिर वही सुबह,
कि अचानक!
बूटों की आवाज़,
घर की देहरी पर आकर थमी।
थरथराहट उठीं बेटियाँ
मूक बन गए पिता।
बेटे ने संभाली ज़ग लगी बंदूक।
नहीं बचा पाया,
बहनों के वस्त्रों को।
चीरहरण के बीच गूंजी
मर्मांतक चीख।
पिता घर की म्याल पर लटके कांपते पैर,
फिर स्थिर होती देह।
मां ने फटी-फटी आंखों से,
देखा।
और सुनी, बेटे की अंतिम चीख। सुबह होने को थी,
हल्का उजाला पसरा पड़ा था, झोपड़ी के अंदर।
अब सायरन से भयभीत नहीं थी माँ
युद्ध थम चुका था, उसके भीतर का।
बचा क्या था, दांव में लगाने को?
बेटियाँ, पति, पुत्र या वह स्वयं?
माँ रुपी युधिष्ठिर ने सब कुछ गंवा दिया था।
एक और अंतहीन महाभारत में।