अंतिम निर्णायक / पद्मजा शर्मा
वह चाहता है
कि जब वह चाहे तक
हँसूं-रोऊँ-पढूँ-कमाऊँ-गिड़गिड़ाऊँ
उसे इसकी परवाह नहीं
कि कब क्या चाहती हूँ मैं
मेरे लिए है क्या उचित-अनुचित
उसके और मेरे शरीर के आकार-प्रकार-ताकत में है अंतर
दिमागी क्षमता के कण भर भी नहीं
मैं सोच सकती हूँ अपने बारे में
क्योंकि स्वयं को उस से बेहतर जानती हूँ
इसीलिए ख़ुद को अपना अंतिम निर्णायक मानती हूँ
हो सकता है, मेरे कुछ निर्णय हों गलत
पर कुछ होगें सही भी
अब अपनी मर्ज़ी से चलूंगी ही
औरों की बताई राहों पर चली तब
रास्ते अंधेरों से गुज़रते हुए
अंधी सुरंगों में बिला जाते थे
भय के भयानक जंगलों में भटकती थी
सुरक्षित हूँ सोच कर
कबूतर की तरह आँखें खुलीं तो खुली ही रह गयीं
कि जानवरों के निशाने पर हूँ
असमय मौत के मुहाने पर हूँ
सारा माजरा समझ में आ रहा है
उनका घात और मेरा अति विश्वास
खाए जा रहा है
पर ठोकरें खा-खा कर अब संभल गई हूँ
तथाकथित घर से निकल गई हूँ
कि असल में आज घर गई हूँ
नहीं जानती
पर यह तय है कि अब
पूरा होगा हर सपना
निर्णय होगा मेरा अपना
आँखें खुली रहेंगी
इनमें डर होगा न आँसू
अंधविश्वास न अँधेरा होगा
इठलाएंगी ख़ुशियाँ जग में
इसका उसका सबका तेरा-मेरा होगा
ख़ुशियों से भरा सवेरा होगा।