अंतिम महारास / दृश्य 7 / कुमार रवींद्र
दृश्य - सात
कथा वाचन - और ... अब
तैयारी महासमर की होने वाली है -
नींव पड़ी है उसकी राजसूय यज्ञ में
ईर्ष्या से दग्ध हुआ दुर्योधन |
कुटिल शकुनि ने विरचा छली द्यूत
और धर्मराज चढ़े उसकी बली |
अनाचार की सारी सीमाएँ भंग हुईं -
दाँव पर लगे मानव-मानवी
और फिर अंत में ... ...
[हस्तिनापुर के सभा-भवन में द्यूत-क्रीड़ा का दृश्य | एक ओर ऊँचे मंच पर महाराज धृतराष्ट्र सिंहासनासीन है | उनके साथ के आसनों पर विदुर एवं पितामह भीष्म बैठे हैं | संजय धृतराष्ट्र के बिलकुल पीछे बैठे हैं | अन्य सभासद बृहदाकार सभाकक्ष के चारों ओर विविध आसनों पर आसीन हैं | बीच में एक बड़े मंच पर द्यूत-क्रीड़ा चल रही है | शकुनि दुर्योधन की ओर से पाँसे फेंकता है | दुर्योधन-दु:शासन आदि कौरव और कर्ण -शकुनि अट्टहास करते हैं | शकुनि युधिष्ठिर से कहता है]
शकुनि - महाराज पाण्डुपुत्र !
यह भी है दाँव गया आपके विरुद्ध ही -
द्रौपदी, महारानी आपकी
हो गयी सुयोधन की |
(दुर्योधन से) भागिनेय !
द्रौपदी तुम्हारी है दासी अब
ये पाँचो भाई भी दास हुए |
[दुर्योधन-दु:शासन आदि धृतराष्ट्र-पुत्र हर्ष से जोर-जोर से अपनी भुजाएँ और उत्तरीय लहराते हैं, बार-बार अट्टहास करते हैं | भीष्म और अन्य कुरुकुल के वरिष्ठ सदस्य स्तब्ध चुप बैठे रहते हैं | पांडव भी नतमस्तक बैठे हैं | दुर्योधन के आदेश पर चाकरगण पांडवों के वस्त्र -मुकुट आदि उनसे उतरवा लेते हैं | फिर दुर्योधन प्रतिकामी को आदेश देता है]
दुर्योधन - शीघ्र जाओ अन्तःपुर -
जाकर आदेश दो
इन पाँचों दासों की महारानी दासी को
स्वामी की सेवा में वह तुरंत उपस्थित हो |
कथा वाचन - और हुआ उस दिन वह अनाचार
कुरुओं की धरती पर
जिसका इतिहास नाम लेते थर्राता है |
साक्षी हैं पीढ़ियाँ -
नारी का ऐसा अपमान कभी हुआ नहीं
भ्रष्ट अनाचारों की सारी ही सीमाएँ टूटीं थीं |
द्रौपदी, महारानी श्रेष्ठ पाण्डुपुत्रों की
दु:शासन द्वारा
लायी गयी सभामध्य खींचकर -
एकवस्त्रा- रजस्वला .....
[दृश्य फिर उभरता है | दु:शासन द्रौपदी को सभागार में उसके खुले केशों से पकड़कर खींचते हुए प्रवेश करता है और उसे दुर्योधन के पैरों के पास धक्का देकर गिरा देता है | दुर्योधन पहले अश्लील अमर्यादित संकेत करता है और फिर द्रौपदी के देह पर जो एकमात्र वस्त्र है, दु:शासन से उसे भी उतारने का आदेश देता है | सारी सभा इस अनर्थपूर्ण व्यवहार पर स्तंभित किन्तु निष्क्रिय बनी रहती है | द्रौपदी रोष से अश्रुपात करती हुई भीष्म-द्रोण-धृतराष्ट्र और अन्य उपस्थित गुरुजनों से अपनी रक्षा करने के लिए याचना करती है, पर वे सभी मौन रहते हैं | दु:शासन द्रौपदी के चीर-हरण हेतु उसके वस्त्र को अपने पूरे बल से खींचता है| सभी यंत्रवत इस दुष्कर्म को मूक दर्शक की भाँति देखते रह जाते हैं | भीम क्रोध से उबलते हैं, पर युधिष्ठिर उन्हें अपने हाथों के इंगित से रोक देते हैं | केवल विकर्ण इस दुष्कृत्य का विरोध करता है, किन्तु उसे दुर्योधन कड़े शब्दों में डांट देता है - विकर्ण सभागार छोडकर चला जाता है | द्रौपदी विलखती हुई चारों ओर सहायता के लिए देखती है | पर अंत में अपने को, अपने पतियों एवं अन्य सभी को निरुपाय पाकर वह 'कृष्ण-कृष्ण' गुहार करती हुई आँख मूँदकर ध्यानमग्न हो जाती है | उसका आत्मालाप उठता है ]
द्रौपदी (आत्मालाप) - राधा के कान्हा- कनु- केशव !
गोपालकृष्ण- माधव - हे वार्ष्णेय !
गोवर्धनधारी हे मोहन - हे कष्टहरण !
रक्षा करो मेरी, प्रभु ! रक्षा करो !
मैं भी हूँ राधा ही -
आर्त्त हुई इस दारुण क्षण में मैं -
त्राहि माम ! त्राहि माम !
अब तुम ही केवल हो गति मेरी
आश्रय भी |
त्राहि माम ! वासुदेव, त्राहि माम !
तुम ही हो सखा-मित्र
तुम ही हो बन्धु- प्रेय
आर्त्त मैं ... गोपिका तुम्हारी मैं !
वरण करो, प्रभु मेरा
मृत्यु दो - मुक्ति दो ... ...
[वंशीधुन फिर सुनाई देती है | द्रौपदी एक विराट प्रकाश-पुंज से घिर जाती है | उस प्रकाश-पुंज में राधा की आकृति द्रौपदी को अपनी बाँहों में घेर लेती है | लगता है द्रौपदी के चीर का अनंत विस्तार हो गया है | दु:शासन हतप्रभ-हताश थककर निढाल एक आसन पर लुढ़क जाता है | सारी कौरव-सभा अचरज से उस दृश्य को देखती रह जाती है]
कथा वाचन - ऐसे ही राधा का अवतरण बार-बार होता है |
जहाँ-जहाँ अनाचार होता है
राधा का शक्ति-रूप अवतरित होता है |
कभी प्रेम होती है राधा
तो कभी शक्तिरूपा भी |
यह राधा-भाव है अलौकिक ही -
रचता है विस्मय वह |
जब मनुष्य इस राधा-भाव में उतरता है
अहंकार सारे छोड़ ...
राधा की शक्ति तभी होती है मूर्त्त
और बनती है कवच और रक्षासूत्र |
द्रौपदी सुरक्षित है -
राधा के प्रेमिल संरक्षण में |
राधामय इस क्षण में
दुर्योधन- दु:शासन शक्तियाँ पराजित हैं -
निष्प्रभ हैं |