भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अंतिम मोती भी रूठ गया / रजनी अनुरागी
Kavita Kosh से
कुछ मोती चुने थे मैंने
पिरोई थी खूबसूरत सी लड़ी एक
एक-एक को परखा था मैंने
पर क्या सचमुच परख पाई थी?
इस वक्त की आँच में
कुछ फिसल गए, कुछ दरक गए
कुछ झुलस गए, कुछ हुलस गए
कुछ मेरी ही आभा से
कुछ और ही ज्यादा चमक गए
रम गए अपनी ही दुनिया में
काफिला जो साथ था
न जाने कहाँ छूट गया
लगाता है मेरे तागे का
अंतिम मोती भी रूठ गया