भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अंतिम संवाद / सुरेश चंद्रा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जाने किस नक्षत्र में, मेरी युगों की तपस्या फलित हुई थी
जब तुम ने, मुझ अभिशप्त को पुकारा था

सदा ही असामयि, हतभागा मैं
उतार फेंकना चाहता था
सारी उच्छश्रृंखलता, दर्प
अपनी कालिमा की केंचुली

अनंत नीरवता सा बहता, मैं पहुँचा था तुम तक
अपने सभी अशुभ, अमंगल और कुरूप सत्य लिए
और कह दिया था तुमसे, मुझे अँधियारे पसंद हैं

हाँ शिल्पी थीं तुम
मैं एक अनगढ़ शब्द, तुम एक सम्पूर्ण अर्थ
तुमने अपनी सुंदरतम कल्पनाओं में, पुनः रचा मुझे
मेरी वास्तविकता से पृथक, एक नयी निहारिका में
तुम्हारे अंतस का उजास, लीलता रहा मेरा तमस
और मैं तुम्हारे प्रकाश में, तारिकाधूलि सा दमक उठा

मैंने पूछा स्वयं से, कैसा ये जीवनस्वप्न सा?
कैसा ये स्वप्न जीवन सा?

मैं जो नकारा, निकृष्ट, नगण्य, निरर्थक था
संसार में सर्वश्रेष्ठतम हो जाना चाहता था, केवल तुम्हारे लिए
सघन नींद मे डूबी सदियों को झकझोरते हुए
तुमने चुपके से रख दिया, अनंत रात के सिरहाने, एक सुनहरी भोर का स्वप्न
रात मद्धिम लौ में, स्पर्श करती रही आलिंगन
चाँद ने चाँदनी के हाथ, जाने क्या भेजा मुझ तक
कि तुम्हारी सिहरन, मेरे वक्ष में अमोघ समा गयी

मैं प्रतिदिन कहता, मुझे तुमसे नित-दिन, हो जाता है प्रेम
तुम्हारा प्रतिउत्तर मेरे रोम-रोम ने, तुम्हारी झुकी पलकों की लाज से उतारा
और हमने जाना प्रेम के स्वर, कहीं भी, कभी भी, सदा ही, एक से होते हैं

जाने कितने ही महाकाव्य रच डाले, निशब्द स्मितियों ने ओष्ठों पर
असंख्य द्वार खुल गए, अनहद नाद, एक निस्सीम शांति की ओर
हमने संग सुना, बीती सदियों का गान, हम संग सुनते रहे, आगत वर्षों की थाप
मैं अमर हो जाना चाहता था, प्रेम का आयुष्य लिए

मेरी अभागी अभिशप्तता, रात के तन से भी काली थी मगर
सो तुमने हठ किया, कि तुम्हें सांध्य गीत के पार हो आना है
जबकि जानती थी तुम, कि ऐसी रात का घिर आना निश्चित है
जिसके प्रारब्ध में फिर कोई भोर नहीं

तुमने कहा, सवेरे के प्रभंजन के लिए, आवश्यक है विदा कहना
सूरज विदा हुआ, पुनः सघन अंधकार
युग बीते, सदियाँ बहीं, मैं चिर-प्रतीक्षारत
श्यामवर्ण अंधकार में तुम्हारा अस्तित्व टटोलते एक मात्र प्रश्न लिए
कि क्यूँ तुम नहीं कह पायी मुझसे 'सुनो, अब जाती हूँ, फिर नहीं लौटने के लिए'

अनगिनत प्रश्न लिए मैं, अपलक निहारता रहा तुम्हें, जड़-पाषाण सा
बेबस निहारता तुम्हारी छवि, क्षितिज के पार विलीन होती हुई
अनुत्तरित प्रश्न मेरे, लौट आते हैं मुझ तक
'तुम नहीं कुछ कहतीं, तुम कुछ नहीं कहतीं'

अपने आराध्य से, याचना है मेरी
मेरी अंतहीन अभिशप्तता से, ले सकूँ विदा, सदा-सदा के लिए
कि तुम्हारी सुधि मे पुनः आऊं, और तुम पुकार लो फिर मुझे
धर आओ अपनी दृष्टि, इंद्रधनुष के सातवें रंग पर
जिसने हमारे प्रेम और मिलन को, दी थी स्वीकृति
फिर कभी ना लीलनी पड़े तुम्हें मेरी अमंगलता
ना मेरी अशुभता फिर कभी लील जाये तुम्हें

मेरी हूहूआती वीरान विक्षुब्धता
सिसकती है श्वासों की प्रतिध्वनि
पुकारो मुझे, पुनः पुकारो ना स्वामिनी तुम
मोक्ष निहित, मैं आकुल अनुगामी
तज दूँ, प्रतीक्षा का संसार तत्क्षण
अंततः स्वीकारो, सम्पूर्ण समर्पण.