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अंदाज़ा ही बहक न गया था / शमशेर बहादुर सिंह
Kavita Kosh से
अन्दाज़ा ही बहक न गया था निशाँ के पार
थी सैद की निगाह भी तीरो-कमाँ के पार!
आज़ादियाँ हैं खित्तए-बहम-ओ-गुमाँ के पार
आओ बसाएँ एक जहाँ इस जहाँ के पार!
ख़ामोशिए-दुआ हूँ, मुझे कुछ ख़बर नहीं
जाती हैं क्या सदाएँ तेरे आस्ताँ के पार!
सात आसमान झुक के उठाते हैं किसके नाज़?
किसकी झलक-सी है चमने-कहकशाँ के पार?
इतना उदास आपका दिल किसलिए हुआ?
हर दर्द की दवा है, ज़मानो मकाँ के पार!
क़ायम महाज़ अम्न के हिन्दोस्ताँ से हो!
फ़ौजें न जाएँ सरहदे-हिन्दोस्ताँ के पार!
शब्दार्थ :
सैद=शिकार; खित्तए-वहम-ओ-गुमाँ=वहम और गुमान का घेरा; चमने-कहकशाँ=आकाशगंगा का उपवन; अम्न के=शान्तिक्षेत्र