भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अंधकार ये कैसा छाया / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
Kavita Kosh से
अंधकार ये कैसा छाया
सूरज भी रह गया सहमकर ।
सिंहासन पर रावण बैठा
फिर से राम चले वन पथ पर ।
लोग कपट के महलों में रह
सारी उमर बिता देते हैं ।
शिकन नहीं आती माथे पर
छाती और फुला लेते हैं ।
कौर लूटते हैं भूखों का
फिर भी चलते हैं इतराकर ।।
दरबारों में हाजि़र होकर
गीत नहीं हम गाने वाले ।
चरण चूमना नहीं है आदत
ना हम शीश झुकाने वाले ।
मेहनत की सूखी रोटी भी
हमने खाई थी गा गाकर ।।
दया नहीं है जिनके मन में
उनसे अपना जुड़े न नाता ।
चाहे सेठ मुनि ज्ञानी हो
फूटी आँख न हमें सुहाता ।
ठोकर खाकर गिरते पड़ते
पथ पर बढ़ते रहे सँभलकर।।