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अंधा और मंदबुद्धि / जितेन्द्र सोनी
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उनका अंधापन
शुक्र है
नहीं दिखाता
हरे नोटों की भूख
सफ़ेद होता खून
दुनियावी रंग
उनका मंदबुद्धि होना
बेहतर है
वे नहीं जानते
खोखली दुनिया में ढ़लना
गिरगिट की तरह रंग बदलना
सभ्य होने के लिए झूठा मुस्कुराना
वे सब खुश हैं हमसे भी ज्यादा
अपनी ही दुनिया में
और हम
सब होने पर भी
लड़ते हैं रोज खुद से
असंतुष्ट , खफा और सिकुड़े से
खिलखिला ही नहीं पाते हैं
ऐसे में एक प्रश्न उभरता है
उनमें और हममें
कौन है असल में
अंधा और मंदबुद्धि ?