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अंधी गली का मोड़ / विमल राजस्थानी

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आ गया अंधी गली का मोड़,
आगे पथ नहीं है
है चतुर्दिक व्याप्त सन्नाटा
कि जैसे मौन मरघट
पंख गिद्धों के हवा में-
भर रहे बस सनसनाहट
पाँव पैदल ही महाभारत मचा है
ध्वज उड़ाता आज कोई रथ नहीं है
आ गया अंधी गली का मोड़,
आगे पथ नहीं है

है न कोई आज कौरव या कि पांडव
दबे-कुचले लोग हैं फनफनाते
चढ़ ‘षिखा’ के शीर्ष पर बैठै दहाड़ें
आँगनों में घुस पड़े हैं दनदनाते
तान सीना गोलियों को झेलते जो
विगत सा कमजोर, काहिल, श्लथ नहीं हैं
आ गया अंधी गली का मोड़,
आगे पथ नहीं है

अब न शोषण-चक्र घूर्णित रह सकेगा
काल जो उल्टा रहा चल, कब रूकेगा ?
‘सुत्र’ से ‘नरमेध’ का घोड़ा ना बाँधो
अब न यह विद्रोह का झंडा झुकेगा
सिन्धु है प्रतिषोध का सम्मुख अनय के
हो गये शत खंड आदिम क्रुर भय के
भय त्रिनेत्रों का न जिनमें, बस धुँआ है
युद्धरत ‘रैदास’ है, ‘मन्मथ’ नहीं है
आ गया अंधी गली का मोड़,
आगे पथ नहीं है