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अंधी पिस्तौल / रघुवीर सहाय
Kavita Kosh से
सुरक्षा अधिकारी सेनाधिपति के
पूर कर देखते हैं मेरा चेहरा
बहुत दिनों से उन्होंने नहीं देखा है मेरा चेहरा
धीरे-धीरे कम होती गई है मेरी और सेनाधिपति की
बातचीत
इसलिए मैं सिपाहियों की निगाह में अजनबी हो गया हूँ
ये सिपाही भी कोई दूसरे हैं
पहले जो थे कुछ अदब करते थे
मेरा भी और उनका भी
अब जो हैं इतने उजड्ड हैं कि मैं
सेनाधिपति के लिए चिन्तित हूँ
वे वरदी नहीं पहने हैं सिर्फ़ कमीज़ पतलून
उसके नीचे वे सौ फ़ीसदी हिन्दुस्तानी हैं
उन्हें वरदी पहनाई गई होती तो अच्छा रहता
अब जब वे पिस्तौल निकालेंगे कितना अचरज होगा
और किस पर दागेंगे यह देखकर तो
और भी ज़्यादा