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अंधी मधुमक्खी / सौभाग्य कुमार मिश्र / दिनेश कुमार माली

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रचनाकार: सौभाग्य कुमार मिश्र(1943)

जन्मस्थान: ब्रह्मपुर, गंजाम

कविता संग्रह: आत्म नेपदी(1965), मध्यपदलोपी(1971), नइ पहँरा (1973), अंध महूमाछि (1977) वज्रयान(1981),द्वा सुपर्णा (1984), मणिकर्णिका(1990), अन्यत्र(1994)




धूं धूं खाली खेत की ड्योढ़ी पर अकेले खड़े होकर
पंखों की फडफड़ाहट को सुनता हूँ
हवा के अकुंठित चुम्बन में उड़ते पंखेरुओं की
कहीं कोई नहीं है,जान पड़ता है
कुदाल लिए रूग्ण उदास आदमी
पीछे- पीछे उसकी औरत, बच्चें और बड़े बेटे के
हाथ में छटपटाता पतंगा
इसी एकांत का इन्तजार करते
जीवन की प्रथम किशोरी प्रेमी से ज्यादा पवित्र




रेगिस्तान और सिपाहियों के कुत्सित आदेश से
मै जानता हूँ पानी खोजने जाना पड़ता है
लाल मकड़ी के अतृप्त जाल में
निर्दोष मच्छर को फेंकना पड़ता है
शराबी मरणासन्न पड़ोसियों की रोती हुई छोटी बेटी को
पत्नी के हाथ में देना पड़ता है
टूटी फूटी साइकल के कर्कश शब्द से
वृद्ध चपरासी को समझना पड़ता है
भांजे की आत्महत्या के असली कारण
इसे पकड़ो, उसे छोड़ो, फेंक दो उसे नहर के पानी में
इसे छुओ, उसे देखो
बुद्धू इन्द्रियों को परेड में खड़ा करके कमांड दो
इस धरती को मजबूती से जकड कर रखो
सिंह द्वार से आँगन की विस्तृत सेम लता तक



हाथ की मुट्ठी से कभी कोई भी छूटा है ?
शेर-बकरी के खेल में कभी कोई बचा है ?
भूल और सही, सही और भूल
प्रश्न और उत्तर ,परीक्षा और विस्तार
जमे हुए खेल के अन्दर धीरे- धीरे अपने आप
लाक्षा गृह जल जाता है, बच्चे क्रंदन करने लगते हैं
पागल बूढ़ा बाप उठता है, सोता है, उठता है
घने कोहरे में गंदी- गंदी गालियाँ देता है
माँ बूढ़ी हो चली है पल्लू के किनारे से आंसू पोछती है
कोई बच नहीं पाता है
ना फूल न भौरें
न रेफरी न खिलाड़ी
ना मृत्यु ना जीवन
सभी केवल उतरते हुए आते हैं
किसी अनोखे उपन्यास के सत्तावन पन्नों में
अचानक थोड़ी सी राख़ बन कर चिपक जातें हैं
जिनकी कोई यादें नहीं हैं
और वह प्रसिद्द सत्य हवा में तैरता रहता है



वह औरत मुझे प्यार करती है
मेरे उद्भ्रांत आलस्य को ,
मेरी प्रबल पराक्रमी अनिश्चितता को
वे लोग मेरे पेशेवर नृत्य को पसंद करते हैं
और अचानक मेरे मुँह से मुखौटा हटा कर कहते हैं,
अरे तुम!
शायद तुम्हे गत वर्ष दिसंबर में ट्रेन में देखा है ?
इंटरव्यू कैसा हुआ? नौकरी का क्या हुआ ?
पांच- सात गुड़ियाँ काख में दबाकर सहमे- सहमे
पांवों से सीढ़ी उतरती हुई रघु बाबू की चार वर्षीय बेटी
मुझे सुनाई पड़ता है ,
वे सब खीर खाकर सो गए हैं काका !
आज मुझे समझने के लिए जाना पड़े
और कुछ समय के बाद हम सभी को सोना पड़ेगा
हमारे पाँव के ऊपर से समय
चुपचाप सांप की तरह रेंगता हुआ जाएगा
हाथ की पहुँच में कली पंखुड़ियां खोलकर फूल
बन जाएगी और अनेक बुझती हुई लालटेनें
धूँ धूँ खाली खेत में इधर- उधर
खोजती घूम रही होंगी
सदियों पहले खोए हुए सफ़ेद घोड़े को
और उस पर सवार अंधे जमींदार को !



कितना चमत्कारिक होता है इन्तजार !
केवल आगंतुक के प्रति मोह नहीं रहने से ठीक
कितना उत्तेजक होता है खोजना !
मिली हुई पोटली अपनी नहीं होने से ठीक
रोने में भी क्या चमत्कार !
केवल आँखें सूख जाने से ठीक
सत्तर वर्ष की उम्र में निर्धारित खाई में
कूदना भी कितना आश्चर्यजनक !
केवल लाश नहीं मिलने से ठीक



सभी में मधु
कटक में ,कदम्ब में ,खाट में, खुले आँगन में
गुमान में , गरुड़-स्तम्भ में ,घंटा में ,घी में ,जड़ में
चिंता में ,चौंक में ,छुरी में, जामुरोल में, जेल में
झडे पत्तों में, झींगुर के शब्दों में ,अंगूठे के निशान में
पथरीली मिट्टी में, इशारों में ,गोल-मटोल चंद्रमा में
डाल में ,डमरू में ,तारुण्य में ,तन्द्रा में, थाली में
स्थिर पानी में ,हंसिया में ,खैनी में, धमकी में
ध्यान में ,नहर में, निर्वाण में, पैर में ,पराजय में
खाली खेत में, बंसी में, विवाद में, भोर में, भय में
मेघ में ,मंदिर में, योनि में ,यात्रा में
रति में , झगड़े-झंझट में, लोभ में ,लाभ में
वृहस्पति और वैश्या में ,शान्ति और शोक में
सब में ,समस्त में मधु ही मधु
सहोदर में, समुद्र में ,सोलह कला और षष्ठी में
होम में, हवन में, क्षति में ,क्षमा में
सब जगह मधु ही मधु
फूल में और कुष्ठ रोगी के घाव में



अंधी मधुमक्खी!
उड़ती रहो , घूमती रहो ,घूमती रहो
कुछ मत देखो, मत देखो, मत देखो
जहां तक शृन्गिकाएं स्पर्श करती है, चूसो, चूसो
हिसाब बाद में होगा
तुम्हारी मृत्यु के वर्ण-बोध, व्याकरण ,मौखिक-गणित का
शिशु पृथ्वी को सीखते समय