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अंधी सुरंग के खिलाफ / रमेश तैलंग
Kavita Kosh से
जिस अंधी सुरंग में
हम सब भागे जा रहे हैं
उसका सिरा है कहां?
क्या तुम्हें नहीं लगता
यह बदहवासों की तरह भागना
और भागते चले जाना
अब हमारी नियति बन चुकी है।
मुझे लगता है
इस अंधी सुरंग का
सिरा खोजने में ही
मर-खप गए होंगे
हमारे पूर्वज,
हम भी मरेंगे
और शायद
हमारी सन्तानें भी।
सिरे का पता हो तो
दूरी का कुछ-कुछ
अनुमान लगाया जा सकता है
पर इस
अंधी सुरंग का सिरा
कोई खोजे भी तो किस तरह?
हम जिसे अंधी सुरंग समझते हैं
वह सुरंग है ही नहीं
वह तो एक गोलाकार
चक्कर है-
गोलमोल
जहां भागना है
और सिर्फ भागते ही जाना है।
लेकिन...सुनो,
जब हमारी नियति
तय हो ही चुकी है
तो चलो...
हम भागें आखिरी दम तक
जूझते हुए, लड़ते हुए
मौत की आंखों में
जिन्दगी की तरह
गड़ते हुए।