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अंधेरी डगर, हादसे चल रहे हैं / देवी नांगरानी
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अंधेरी डगर, हादसे चल रहे हैं
जिगर के दिए ख़ून से जल रहे हैं
अजब ढंग के हैं जवानी के तेवर
बुज़ुर्गों को ये बेवजह खल रहे हैं
टपकता है दिल से लहू कतरा-कतरा
कि तेरे दिये ज़ख़्म यूँ पल रहे हैं
परायों की नज़रों को भाए हैं, लेकिन
हमारे ही अपने हमें छल रहे हैं
न कसमें, न वादे, न हसरत, न अरमां
जो सपने थे वो अश्क में ढल रहे हैं
गए थे वो ख़ुद रूठ कर मुझसे ‘देवी’
पशेमाँ हैं अब हाथ क्यूँ मल रहे हैं.